मराठवाडा मुक्ती संग्राम इतिहास का दूसरा पहलू
हर साल 17 सितम्बर को 15 अगस्त की तरह मराठवाडा के हर जिले, तहसील और गांव में मुक्ति संग्राम का जश्न मनाया जाता है इस वर्ष 75 वीं वर्ष गांठ के कारण 17 सितम्बर 2022 को मराठवाडा मुक्ति संग्राम का अमृत महोत्स्व मनाया जा रहा है। सरकारी तौर पर स्कूल, कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों पर तिरंगा फहरा कर सलामी दी जाती है। क्योंकि आज ही के दिन यानि 17 सितम्बर 1948 को हैदराबाद की तत्कालीन निज़ाम सरकार और उनके रज़ाकारों के ज़ुल्म व अत्याचार से मराठवडो की रियाया को मुक्ति मिली थी।
निजाम शाही:- ’निज़ाम’ का अर्थ है व्यवस्था, ’शाही’ का अर्थ है राज्य। हैदराबाद राज्य को निजाम शाही कहने की प्रथा है, लेकिन इस सल्तनत का आधिकारिक नाम ’आसफजाही सल्तनत’ था। आकार और संपत्ति के मामले में भारत की सबसे बड़ी इस सल्तनत को ’हैदराबाद राज्य’ के नाम से भी जाना जाता था। निजामशाही की स्थापना चिंकुलीखान मीर कमरुद्दीन सिद्दीकी ने की थी। वे मुगल वंश और समरकंद के तातार थे। 1773 में, उन्हें मुगलों द्वारा दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया गया था। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, उन्होंने 1724 में हैदराबाद में अपनी सल्तनत की स्थापना ’आसिफजाह’ के नाम से की। 15 अगस्त 1947 को जब भारत देश स्वतंत्र हुआ तो इसी देश में पुरातन संस्थानों के राजा महाराजाओं की सत्ता ग्वालियर, जोधपुर, जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद सहित लग भाग 600 स्थानों पर थी, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने उन संस्थानिकों को देश के लोकतंत्र शासन में सम्मिलित होने का आवाहन किया तो हैदराबाद संस्थान को छोड़ कर सभी संस्थानिकों ने भारत लोकतंत्र शासन को मान्य करते हुए अपनी स्वीकृति दे दी, पर हैदराबाद संस्थान के शासक नवाब मीर उस्मान अली खां निजाम ने अपनी हटधर्मी के सबब भारतीय लोकतंत्र में समाविष्ट होने से इंकार कर दिया, जिस पर गृह मंत्री सरदार पटेल ने 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना को मेजर जनरल जे एन चौधरी के नेतृत्व में हैदराबाद में घुसा दिया,108 घंटों तक चली इस कार्रवाई में सरकारी आंकों के अनुसार 1,373 रज़ाकार मारे गए. हैदराबाद स्टेट के 807 जवानों की मौत हुई. भारतीय सेना ने भी अपने 66 जवान खोए जबकि 97 जवान घायल हुए थे।
भारत में विलय से इनकार क्यों? :- उस समय इम्पेरियल बैंक ऑफ इंग्लैंड ब्रिटेन का रिजर्व बैंक था। उसके भांडवल का एक बडा हिस्सा निज़ाम उस्मान अली पाशा का था। 1942 में चलेजाव आंदोलन के बाद मीर उस्मान अली पाशा ने महसूस किया कि अंग्रेज लंबे समय तक भारत पर शासन नहीं कर पाएंगे। इसके बाद उन्होंने इम्पेरियल बैंक ऑफ इंग्लैंड को एक नोटिस जारी कर अंग्रेजों पर अपनी पूंजी वापस करने का दबाव बनाया। जैसे ही ब्रिटिश लोगों ने इस बारे में सुना वे अपनी जमा राशि वापस मांगने लगे। दिवालिया होने के डर से इंग्लैंड की रानी खुद हैदराबाद आई और मीर उस्मान अली पाशा को आश्वासन दिया कि उसकी रियासत और उसका भांडवल दोनों सुरक्षित रहेंगे। इस आश्वासन कि वजाह से निज़ाम ने भारत के 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र होने से पहले जून 1947 को भारत में विलय न होने की आधिकारिक तौर पर घोषणा कर दी, इतना ही नहीं उन्होंने बॅ. जिन्ना से मदद की गुहार भी लगाई, जिसे बॅ. जिन्ना ने ठुकरा दिया। इसके अलावा निज़ाम ने पुर्तगाल से संपर्क करके अपने जनरल सैयद अहमद हबीब अल अदरूस को गोवा के बंदरगाह से हथियार लाने के लिए यूरोप भेजा था लेकिन चूंकि हैदराबाद राज्य एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं था, इसलिए वे हथियार प्राप्त करने में विफल रहे। निज़ाम ने राष्ट्रमंडल में सदस्यता की मांग भी की लेकिन इटली की सरकार ने इससे इनकार किया। इन सबके बावजूद निजाम के आंदोलन जारी रहे। उन्होंने इंग्लैंड में हैदराबाद राज्य के प्रतिनिधि मीर नवाज जंग के माध्यम से ऑस्ट्रेलिया में एक हथियार डीलर सिडनी कॉटन से संपर्क किया और हत्यारों की मांग की जिस पर वो राज़ी हो गया। गृह मंत्री सरदार पटेल ने यह सूचना मिलने के बाद कि जहाज हथियार लेकर हैदराबाद जा रहा है, जहाज के भारत न पहुंचने की व्यवस्था कर डाली। अंत में कश्मीर की तरह निज़ाम ने लॉर्ड माउंटबेटन को विदेश नीति, रक्षा और संचार विभागों को छोकर हमें स्वायत्तता देने के लिए मनाने की कोशिश की। इसमें कोई रास्ता निकल सकता था, हैदराबाद रियासत का भारत में एक समझौता और शांतिपूर्ण विलय हो सकता था लेकिन कासिम रिजवी तैयार नहीं थे। इसलिए यह शांति वार्ता भी सफल नहीं हो सकी। कुल मिलाकर ये घटनाएँ 1947 से 1948 तक एक वर्ष की अवधि के दौरान हुई्ं। वहीं रजाकर भी निजाम के शासन को बचाने के लिए आक्रामक हो गए्। उन्होंने कई जगहों पर हिंसा की वारदात को अंजाम दिया। गंगापुर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में आग लगा दी गई और यात्रियों को नीचे उतारकर पीटा गया। इससे लोगों में तीव्र क्रोध की भावना पैदा हुई और भारत सरकार पर दबाव बढ़ गया।
हैदराबाद को खालसा करने के कारण:- 1)पहला कारण:- मूल रूप से यह है कि बीसवीं सदी में पूरी दुनिया में लोकतंत्र की हवा चल रही थी। निजामों का शासन चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, लोग लोकतंत्र और अपने भविष्य को आकार देने की स्वतंत्रता चाहते थे। चूंकि हैदराबाद रियासत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों पार्टियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, कांग्रेस विचारधारा के लोगों ने आर्य समाज आंदोलन के माध्यम से ’मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम’ नामक एक आंदोलन शुरू किया। निजामशाही के कुछ मुस्लिम समर्थकों ने एमआईएम के जरिए निजामशाही को बचाने की कोशिश की। 2)दूसरा कारण:- रोहिल्या पठानों के सूदखोरी का कारोबार्। मूल रूप से रियासत की रक्षा के लिए अफगानिस्तान से रोहिल्या पठानों को विशेष रूप से बुलाया गया था, लेकिन यहां आते ही उन्होंने सूदखोरी का धंधा शुरू कर दिया। रंगदारी में उनका हथकंडा था इसलिए, हिंदू और मुस्लिम दोनों इसमें पिसे जा रहे थे। रोहिलयों द्वारा वसूली के लिए किए गए अत्याचारों के कारण आम लोग अधिक आक्रामक हो गए्। यह भी निजामशाही के अंत का एक कारण बना। 3)तीसरा कारण:- कम्युनिस्ट आंदोलन है, उस दौरान रूस गए हुए कट्टरपंथी कम्युनिस्ट कवि मकदूम मोहिउद्दीन के नेतृत्व में निजाम के ’बुर्जुआ’ यानी सामंती सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए एक कम्युनिस्ट आंदोलन भी शुरू किया गया था, इसमें हिंदू, मुस्लिम, दलित शामिल थे, खासकर खेतिहर मजदूरों की इसमें बडी संख्याथी, निजामशाही के पतन का यह भी एक कारण था। 4)चौथा कारण:- रजाकार आंदोलन, ’रजा’ का अर्थ है सहमति और ’कर’ का अर्थ है काम, निश्चय ही वे स्वयंसेवक जिन्होंने स्वेच्छा से निजामशाही को बचाने का प्रयास किया उन्हें रजाकार कहा जाता था, हालाँकि इसमें बड़ी संख्या में मुसलमान थे, हिंदू और दलित कम संख्या में ही सही लेकिन इसमें वो भी शामिल थे।यह मिलिशिया निजाम के शासन को बनाए रखने पर जोर दे रहे थे। मूल रूप से इस रजाकार आंदोलन की आयु एक से डेढ़ वर्ष थी। आज भी कुछ बुजुर्गों का कहना है कि उनके मामले में अत्याचार के आरोप बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए हैं. रजाकारों के मुखिया मूल रूप से लातूर के रहने वाले और हैदराबाद में बसे, ऍड. कासिम रिज़वी थे।
मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम:- मराठवाड़ा मुक्ति संग्राम का नेतृत्व स्वामी रामानंद तीर्थ ने किया था, इस मुक्ति संग्राम में शामिल अन्य प्रमुख व्यक्ति थे गोविंदभाई श्रॉफ, अनंत भालेराव, शंकरराव चव्हाण, पी.वी. नरसिम्हाराव, विजयेंद्र काबरा, फूलचंद गांधी, मुल्ला अब्दुल कय्यूम खान, सैयद अखिल (संपादक दास्ताने हाज़िर)। ऑपरेशन पोलो:- सरदार पटेल ने जनरल करियप्पा को बुलवाकर हैदराबाद के खालसा की योजना तैयार करने का आदेश दिया। 13 सितंबर 1948 को मेजर जनरल जयंत-नाथ चौधरी के नेतृत्व में भारतीय सेना की एक टुकड़ी सोलापुर से हैदराबाद के लिए रवाना हुई और 17 सितंबर को सुबह 9 बजे बेगमपेट हवाई अड्डे पर, निज़ाम मीर उस्मान अली पाशा ने अपने सेना प्रमुख सैयद हबीब एड्रस के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। ये है 17 सितम्बर 1948 का मुख़्तसर इतिहास, जिसे बड़े ही जोश व खरोश के साथ सुनाया जाता है, अच्छा है सुनना और सुनाना भी चाहिए, जश्न भी मनाना चाहिए यहाँ तक के उन फौजियों और मराठवाडे के स्वतंत्रा सेनानियों का सम्मान भी होना चाहिए जिन्होंने रज़ाकारों और हैदराबाद स्टेट के जवानों को खदेड़ कर मराठवाडे की रियाया और यहाँ की ज़मीन को उनके ज़ुल्म व सितम से पाक किया। 17 सितम्बर 1948 का ये इतिहास बिलकुल सच है इसमें कोई शक नहीं लेकिन ये इतिहास पूरा नहीं अधूरा है। ये मुक्ति संग्राम का एक पहलू है जिसे दुनिया के सामने लाया जाता है,
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